बुधवार, 20 अप्रैल 2011

मेरी अभिलाषा

मानव अगर बनू इस जगका जाके अयोध्या वास करूँ,

चरण कमल जहां रघुनन्दन के वहीं बैठ निवास करूँ !

पार ब्रह्म परमेश्वर वे हैं सदा उन्हीं का ध्यान करूँ,

सरयू की जल धारा में मैं परम ब्रह्म का गान करूँ !

ये मेरी इच्छा है भगवन जब tak मैं यह सांश भरूँ,

चरण कमल जहां रघुनंदन के वहीं बैठ निवास करूँ ! १

ब्रह्मा विष्णु महेश जहां नित झुक झुक शीश नवाते हैं,

वेद पूराणों में खुद ही ये महा विष्णु कहलाते हैं,

नील गगन में चाँद और तारे नव आभा बिखराते हैं,

सूरज रथ में बैठ के अपने स्वर्ण किरण वरसाते हैं,

हे पुरुषोतम राम सदा मैं दर पे तेरे पड़ा रहूँ,

चरण कमल रघुनन्दन के वहीं बैठ निवास करूँ २

नारद की वीणा के स्वर भी जिससे नेह लगाते हैं,

पापी भी जिस राम नाम से भवसागर तर जाते हैं,

शेषनाग भी लखन रूप में जिनके अनुज कहाते हैं,

वही नर नारायण श्री राम दशरथ के राज दुलारे हैं !

अर्द्धांगनी जिनकी जनक सुता उन चरणों के मैं पास रहूँ,

चरण कमल जहां रघुनन्दन के वहीं बैठ निवास करूँ !

रविवार, 10 अप्रैल 2011

यादों के झरोखों से - प्रिय भाई मनोहरसिंह की याद में

हे भाई मनोहर बता क्या हमारी खता, कुछ कहे ही बिना तू कहाँ चल दिया ? न कोई गिला न शिकवा किया, चुपके से भय्या कहाँ खो गया ? तुझे क्या पता क्या हमारी दशा, हम बेहोश हैं ये दर्द का नशा, तू छोटा था मुझसे पर आगे रहा, रुक रुक के चल मैंने तुझसे कहा, जहां तो जरूरत थी चलने को आगे तेरे साथ भय्या हम भी तो भागे, पर यहाँ तैने ऐसी छलांग लगाई , किधर गया कुछ समझ में आई, तुझे क्या पता क्या हमारी ब्यथा, कुछ तो बताता हमारी खता, कुछ कहे ही बिना तू कहाँ चल दिया ? तेरे जाने से हमको धक्का लगा, क्यों किया भय्या तुने हमसे दगा आँखों में आंसू टपकते रहे, हर जख्म सीने पे सहते रहे, लेकिन भय्या, जो पीड़ा तुमने हमको दी, चुपके से गया आह तक न की ! ये जख्म इस जन्म में भर न पाएगा, लगता ये तो अब साथ ही जाएगा (१०/1997)